पहली बार हिंदी लघुकथा जगत में प्रवेश कर रहा हूँ| आशा है पाठकों को
पसंद आएगा| कोई सुझाव या सुधार हो तो ज़रूर प्रकट करें|
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संजय आज बहुत खुश था, परीक्षा का परिणाम जो घोषित हुआ था| कक्षा में
प्रथम स्थान तो नहीं आया, पर हिंदी जैसे कठिन विषय में उसके कक्षा में सबसे अधिक
अंक थे| जब पिताजी दफ्तर से वापस आए, तब उसने उन्हें भी यह बात बताई| उत्सुकता में
पिताजी ने उसकी हिंदी की उत्तर-पुस्तिका पढ़नी शुरू की| भाषा पर अपने बेटे की अच्छी
पकड़ देखकर उन्हें बहुत गर्व महसूस हो रहा था|
पुस्तिका के अंत में उन्होंने देखा कि संजय ने “इंसान की पहचान” विषय
पर निबंध लिखा है| अंतिम पंक्ति थी – “इंसान की असली पहचान उसे जन्म से नहीं, बल्कि उसके
कर्म से होती है|” उनके पुत्र ने कक्षा ८ में ही एक गंभीर विषय पर इतना प्रगतिशील
निबंध लिखा है, यह सोचकर उन्हें विशेष प्रसन्नता हुई|
शाबाशी देते हुए पिताजी बोले, “बेटा, इतना अच्छा निबंध कौनसी किताब से
तैयार किया?”
“पापा, यह विषय किसी किताब में तो नहीं दिया हुआ था|”
“फिर ये सब विचार तुम्हारे दिमाग में कहाँ से आए?”
“पापा, एक दिन आप अपने मित्रों के साथ चर्चा कर रहे थे कि कैसे आज भी कई लोग चुनावों में सिर्फ जाति के आधार पर वोट डालती है, और इस कारण जातिवाद की राजनीति करने वाले नेता जीत जाते हैं और अच्छे उम्मीदवार हार जाते हैं| कैसे सरकारी नौकरियों और शिक्षा में जाति के आधार पर आरक्षण का लाभ ज़रूरतमंद लोगों को नहीं मिल रहा; साथ ही, अनारक्षित वर्ग के योग्य लोगों के अवसर कम होते जा रहे हैं| आप लोगों की इन्हीं बातों से प्रभावित होकर मैंने निबंध में ये विचार लिखे थे|”
“शाबाश, बेटा!” संजय की परिपक्व सोच सुनकर पिताजी का गर्व दुगुना हो गया|
“पापा, यह विषय किसी किताब में तो नहीं दिया हुआ था|”
“फिर ये सब विचार तुम्हारे दिमाग में कहाँ से आए?”
“पापा, एक दिन आप अपने मित्रों के साथ चर्चा कर रहे थे कि कैसे आज भी कई लोग चुनावों में सिर्फ जाति के आधार पर वोट डालती है, और इस कारण जातिवाद की राजनीति करने वाले नेता जीत जाते हैं और अच्छे उम्मीदवार हार जाते हैं| कैसे सरकारी नौकरियों और शिक्षा में जाति के आधार पर आरक्षण का लाभ ज़रूरतमंद लोगों को नहीं मिल रहा; साथ ही, अनारक्षित वर्ग के योग्य लोगों के अवसर कम होते जा रहे हैं| आप लोगों की इन्हीं बातों से प्रभावित होकर मैंने निबंध में ये विचार लिखे थे|”
“शाबाश, बेटा!” संजय की परिपक्व सोच सुनकर पिताजी का गर्व दुगुना हो गया|
समय बीतता गया| कुछ वर्षों में उसकी कॉलेज की पढाई भी पूरी हो गयी और एक
प्रतिष्ठित कंपनी में उसकी नौकरी भी लग गई| इस बार जब वह दिवाली मनाने घर आया, तब उसके
पिताजी ने उसकी शादी की बात छेड़ दी| उसने सोचा, “यही मौका है पापा को शालिनी के बारे में बताने का!”
बड़ी हिम्मत से उसने अपनी बात रखी, “पापा, मुझे एक लड़की पसंद है| मैं
चाहता हूँ कि...”
पिताजी ने उसे टोकते हुए पूछा, “हमारे समाज की है या नहीं?”
उसने कहा, “नहीं, पापा| पर आप एक बार...”
पिताजी ने फिर टोका, “क्यों समाज में हमारी बेईज्ज़ती करना चाहते हो? भूल जाओ उसे!” बस इतना कहकर वे गुस्से में उठकर चले गए|
पिताजी ने उसे टोकते हुए पूछा, “हमारे समाज की है या नहीं?”
उसने कहा, “नहीं, पापा| पर आप एक बार...”
पिताजी ने फिर टोका, “क्यों समाज में हमारी बेईज्ज़ती करना चाहते हो? भूल जाओ उसे!” बस इतना कहकर वे गुस्से में उठकर चले गए|
पिताजी की ऐसी प्रतिक्रिया सुनकर वह चकराया सा रह गया| तुरंत उसे बचपन
में लिखा एक निबंध याद आया और उसने सोचा, “बचपन की नादानी में शायद गलत लिख आया था|
इंसान की पहचान उसकी योग्यता या कर्मों से होना बस एक भ्रान्ति है, क्योंकि घर-घर में
आज भी इंसान की पहली पहचान उसकी जाति है|”
एक पीड़ी की वेदना निकल कर आ गई आपकी इस लघु कथा में..
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